जन्म संवारे पापमोचनी एकादशी
वर्ष की 24 एकादशियों में से एक पापमोचन एकादशी केवल कामना सिद्धि करने का नहीं, बल्कि पापों का शमन करने का भी अनुष्ठान है
चैत्र कृष्ण पक्ष की एकादशी पापमोचनी एकादशी के नाम से जानी जाती है । शास्त्रों में इस एकादशी को समस्त पापों और तापों से मुक्त करने वाला कहा गया है। पुराणों और स्मृतियों में भी वर्णित है कि भगवान श्री कृष्ण, अर्जुन से कहते हैं, “हे कौंतेय इस संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसके द्वारा जाने-अनजाने में कोई पाप या गलती ना हुई हो । उन्हीं गलतियों और पापों के कारण मनुष्य को जीवन में दुख मिलते हैं । इसलिए जब जीवन में अत्यधिक कष्टों और संघर्षों का सामना करना पड़ रहा हों, तो उसमें मुक्ति का एकमात्र उपाय पापमोचनी एकादशी व्रत है । एकादशी व्रत पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ करने से उपासक को ब्रह्म हत्या सहित कई पापों से मुक्ति मिल जाती है । साथ ही अगले जन्म में मनुष्य रूप में जन्म मिलता है । पापमोचनी एकादशी व्रत करके च्यवन ऋषि के पुत्र ‘मेधावी मुनि’ के श्राप से पिशाच योनि को प्राप्त अप्सरा मंजुघोषा पुनः स्वर्ग लोक चली गई थी । इस व्रत से मेधावी मुनि को भी अपनी शक्तियां वापस मिल गई थी ।
पापमोचनी एकादशी व्रत विधि
व्रती को दशमी के दिन सायंकाल भोजन का त्याग कर पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए शयन करना चाहिए । एकादशी के दिन प्रातः काल स्नानादि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण कर कुशासन पर पूर्वाभिमुख बैठकर अपने सम्मुख चौकी रखकर उस पर पीला वस्त्र बिछाकर श्रीहरि के चतुर्भुज रूप का चित्र स्थापित करके निम्नलिखित संकल्प लेना चाहिए ।
संकल्प मंत्र :
मय कायिक वाचिक, मानसिक, सांसर्गिक पातक उपपातक दुरितक्षयपूर्वक श्रुति स्मृति पुराणोक्त फल प्राप्तये सकल कामनां सिद्ध्यर्थ त्रिविध ताप निवारणार्थ श्री परमेश्वर प्रीतिं कामनया एकादशी व्रतं अहं करिष्ये ।
तदुपरांत भगवान अखंड मंडला कार श्री विष्णु की मनोयोग के साथ पूजन अर्चन व आरती करनी चाहिए । तत्पश्चात यथाशक्ति श्री हरि का भजन-कीर्तन व जप करना चाहिए । इस दिन व्रत कथा पढ़ने और सुनने का भी विधान है । अंत में भगवान का निम्न मंत्रों से ध्यान करना चाहिए –
ध्यान मंत्र :
भू: पादौयस्य नाभिवियदसुर निलश्चन्द्र सूर्यो च नेत्रे । कर्णावाशाः शिरोधोंमुर्खमपिदहनोयस्य वास्तेयायाब्धि अन्तस्थं यस्य विश्वं सुरनर खगगोभोगिगंधर्व दैत्ये । ऋत्ररंरम्यते तं त्रिभुवनवृपुषम विष्णुमीरां नमामि । सशखम चक्रं सकिरीट कुंडलं सपीत वस्त्रं सरसीरुहेक्षणम । सहार वक्षस्थल कौस्तुभश्रियं नमामि विष्णु शिरषा चतुर्भुजं
अर्थात जिस भगवान का पृथ्वी चरण है । नाभि आकाश है, वायु, प्राण है, चंद्र तथा सूर्य नेत्र हैं, दिशाएं कान है, दिक्रलोक सिर हैं, अग्नि मुख है, समुद्र जिन का निवास है, यह सारा संसार जिनके अंतःकरण में वास करता है । देवता, मनुष्य, यक्ष, गंधर्व, पक्षी, सर्प एवं दैत्यों के रूप से जो रमण करते हैं, जो शंख, चक्र गदा, पदम , किरीट कुण्डल, कमल नेत्रों से शोभायमान हैं । कौस्तुमणि जिनके हृदय पर विराजमान है, ऐसे त्रिभुवन के स्वामी चार भुजाओं वाले महाविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ । द्वादशी को व्रत का पारण करना चाहिए ।